Monday, November 15, 2010

घर /मकाँ/ जुमले/लड़कियां

लोग क्या कुछ नहीं करते...एक आशियाँ बनाने के लिए .....बन भी गया तो सजाने के लिए......कितने अरमान होते हैं एक घर के साथ....और उस घर से जुड़े हर पल के साथ .....उन दीवारों ने क्या कुछ नहीं देखा होता....साक्षी होती हैं तब भी, जब घर में कोई नहीं होता ....हर दीवार की एक कहानी होती है,सीनरी, कैलेण्डर, बाल हैंगिग और रंगों की परते, रंग बदलती इंसानी फितरतों सी तजुर्बेकार.....फिर क्यों कहते हैं दीवारें निर्जीव होती हैं? हर्षो-उल्लास, प्रेम, गम, दुःख,पीड़ा, अवसाद, ना जाने कितनी भाव-भंगिमाएँ, सैकड़ो मुद्राए सभी में कभी हमसफ़र तो कभी हमनवा....लेकिन उन पर भी उसका हक नहीं होता .......पराई अमानत जों होती हैं .....फिर एक दिन इन दीवारों से भी नाता टूट जाता है.....दूसरा पराया घर, अपने-पराये से लोग और जान - पहचान बढाती दीवारें ......इन दीवारों से मकाँ बनता है और स्त्रियों से घर .....ख़ास तौर से बेटियाँ .....हाँ !जिन्हें घर की रौनक कहा जाता है ....टिपिकल भारतीय परिवेश की बात करूँ तो ओवर- प्रोटेक्ट किया जाता है



हिन्दुस्तान की शायद ही कोई ऐसी लड़की हो जिसने "पराई अमानत" जैसा जुमला ना सुना हो ......यहाँ मेरे हिसाब से रहो जब अपने घर जाना तो जैसा चाहना वैसा करना ..... जिसे घर मान एक उम्र बिताती है, घर को सवारती हैं सजाती है...उसे मालूम होता है घर के हर हिस्से के जज़्बात ....लुका-छिपी के खेल में कौन सा कोना उसका फेवरेट था, मिकी-माउस और शक्तिमान के स्टीकर उसकी वार्डरोब में आराम से रहते हैं...और वो आइना जों तब ही साथ था जब वो शमीज़ पहन पूरे घर में दौड़ती और फिर आईने के सामने आ तरह-तरह की शक्ले बनाती .....इसी आईने ने उसे साडी में भी देखा है .....गमले में लगे वो सारे पौधे वाकिफ हैं उसकी छुअन से है ...जब टहलते-टहलते तुलसी के पास जाती...तो तुलसी आपने आप झुक जाती कि चख ले मेरी पत्तियां.....कई बार तो हवा के बहाने से गिरा देती अपनी शाखे ...माँ सी तुलसी.....जानती है कि उसे स्वाद पसंद है ....सो खामोश से कर देती बलिदान......फिर धीरे- धीरे लड़कियां खुद ही समझ जाती ....कि एक दिन उन्हें जाना होगा...दूसरे लोगों के बीच सबकुछ छोड़ कर.....उन्हें भी इंतज़ार होता अपने हिस्से कि ज़मीं और अपने आसमां का .....और फिर वो दिन आता जब उसे अपना घर संसार मिल जाता ......उसके हिस्से का आकाश .......उसका अपना घर जहाँ से उसे किसी पराये घर नहीं जाना .....लेकिन मरे जुमले यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ते ......ये रस्म तुम्हारे घर होती होगी, हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता .......या फिर कुछ यूँ ..... जब अपने घर जाना (मायके) तभी फलाना काम कर लेना.


अब लड़की कन्फ्युस आखिर उसका असल घर कौन है .....क्योंकि माता -पिता के यहाँ तो वो पराई-अमानत थी .....अब जब उसे अमानत कि सुपुर्दगी उसके मालिक को कर दी गई है फिर भी ये घर वाले जुमले ...हमें लगता है की लड़कियां एक प्रोपर्टी के जैसे होती हैं जिन्हें ट्रान्सफर किया जाता ....उनकी ओनरशिप बदलती है बस .....लेकिन फिर सवाल जगा एक .......अगर प्रोपटी हैं तो ट्रांस्फ्री को कीमत क्यों चुकानी पड़ती हैं? ये पेचीदा मसले है ....रस्मो, रिवाजो, परम्परों और प्रथाओं से जुड़े हुए .....इन्ही को कहते हैं संस्कृति शायद .....सवाल तो अब भी वही टिका है....हिला ही नहीं....हमसे पहले की पीढ़ी ने भी पूछे होंगे शायद, अगली पीढ़ी के पास जवाब हो शायद....इसी उम्मीद के साथ ......फिर कभी मिलते हैं


Friday, September 10, 2010

डिप्लोमा -ए-जज़्बात (स्पेशलाईजेशन इन इनकम्प्लीट कम्युनिकेशन)

उसका मूड नहीं है आज लिखने का......फिर भी लिख रही है....क्यों ? वो खुद नहीं जानती ...जब भी कोई एकअचानक से याद आता है उसे... तो वो बहुत ज्यादा काम करती है या फिर घर वालों और ऑफिस वालों परखीझती है बेवजह पूरे दिन इरिटेट रहती हैं, या फिर बहुत ज्यादा खाती है और अगर इनमें से कुछ नहीं कर पाती, तो लिखती है न जाने क्या- क्या ....अनाप-शनाप





अब कागज़- कलम का ज़माना तो रहा नहीं सो कीबोर्ड पर उँगलियाँ घिसती है......लेकिन उस जहनगर * को लेकर आज तक कोई मुक्कमल नज़्म, गीत, कहानी, लेख ना मिसरा और ना अंतरा कुछ भी तो नहीं लिख पाई वो . कितना अजीब है ना... और ताज्जुब भरा भी जिसको लेकर एक हर्फ़ भी नहीं फूटा उसकी लेखनी से ......वो उसके दिमाग में घरौंदा बना बैठा है वो जिसका ख्याल उसकी रूटीन लाइफ को प्रभावित कर जाता है .......एक अक्षर भी ना भेट किया उसको ...लैक ऑफ़ कम्युनिकेशन की शिकार....बेचारी! नहीं-नहीं बेचारी टाइप मटिरियल नहीं वो.



रिजिट हुआ करती थी वो उन दिनों ......क्यों बदलूँ मैं .....जैसी हूँ वैसी ही रहूंगी ....मुझे कोई नहीं बदलसकता.....जाने क्यों लोग किसी की लाइफ में इम्पोर्टेंट बन जाते हैं और ना जाने क्या - क्या. हम तो बिनापरमिशन किसी को दिल में इंट्री ही नहीं देंगे.....जाने कैसे लोगों का खुद पर इख्तियार नहीं रहता .....इमोशनलफूल कहीं के.


ताज्जुब होता है उसे ....बिना दास्ताँ के इस अफ़साने पर .....कम्लीट कम्युनिकेशन का फ़ॉर्मूला वो अच्छी तरह जानती है ....बस इम्प्लीमेंट नहीं किया भारत सरकार के कानूनों के जैसे.....यहाँ तो बगैर कम्युनिकेशन के रिश्तेदारी लग गई.....ये सब कब कैसे हुआ उसे पता ही नहीं......प्रक्टिकल टर्म में विश्वास करने वाली बंदी कब इमोशनल हो गई....खुदाई साजिश का नतीजा था ये सारा......या फिर सो काल्ड खुदा कुछ सीखाना चाह रहा हो .....साइलेंट कोम्युनिकाशन के स्लेबस में जिंदगी कौन सी नई परिभाषा सिखा गई ....उसका इल्म तो उसे इन बदलते एहसासों का डिप्लोमा करने के दौरान क्या रिजल्ट घोषित होने के बाद हुआ.....खुल कर रो भी नहीं सकी वो.....खुद को ही कोसती रही ....आज भी कोसती है ...अरमानो को क्यों मचलने दिया ?


ना किसी ने कुछ कहा.....ना किसी ने कुछ सुना ....ना कुछ खोया और ना ही कुछ पाया ......फिर भी कितना कुछ हैउसके पास ....चंद लम्हे ....कुछ फनी इ-मेल्स....मोटिवेशनल थॉट्स, फेस्टिवल ग्रीटिंग्स .....पुरानी डायरी के किसी कोने में लिखा एक मोबाइल नंबर जों अब एक्सिस्ट नहीं करता है .....एक अल्हड़ बावरी गुस्से वाली को सोफ्ट और मच्योर में बदल चल दिए जनाब ....और जाते भी क्यों नहीं ...उन्हें कुछ पता ही नहीं था कि किसी के दिमाग में ऐसे फिट है कि ताला भी वही और चाभी भी वही .


गलत जगह बिना किसी की राय के जज़्बातों को इन्वेस्ट किया ....फंड की मच्युरीटी तो दूर , कोई सरेंडर वैल्यू भी नहीं मिली .......लेकिन इंटेरेस्ट का भुगतान आज भी चल रहा है ....... जज़्बातों पर भी चक्रव्रधि ब्याज लगता है क्या ? ब्रोकर भी नहीं जानता था कि प्रोस्पेक्ट क्या चाहता था.


दोस्त बोले ये तो दास्ताने इश्क का आगाज़ था .....लेकिन वो आज भी नहीं मानती कि उसको कभी मोहब्बत हुई थी उसे नीले छतरी वाले से नहीं बनती उसकी .....अनबन चलती रहती है .....ये दर्द टीसता है उसको ...इसके साथजीना आदत का हिस्सा . फिर सोच पनपती है ज़िदगी ऐसी ना होती वैसी होती तो कैसी होती ? काश ! कम्युनिकेशन कम्प्लीट हुआ होता ? ...

खैर एक शेर गुगुनाते अक्सर देखा है मैंने उसे ---
"दे गया है जों तजुर्बा अपने सफ़र का है मुझे

हो ना हो उस रहनुमा से वास्ता कोई तो है "
(नहीं जानती किसकी कलम से निकला हुआ सच है )





{जहनगर * - मेरे हिसाब से जहन में रहने वाला (ना जाने किसी शब्दकोष में ये शब्द है कि नहीं ....लेकिन हमलिखेंगे हमारा मन है अगर नहीं शब्द है तो मेरे शब्दकोष का नया शब्द माना जाये)}


Saturday, July 31, 2010

ओवरलैप थॉट - जागे और सोए से


कौन नहीं ऊबता रुकी ठहरी जिंदगी से. ...बदलाव वो चाहती थी, लाख कोशिशो के बाद भी किस्मत नहीं बदली उसकी .....हाँ किस्मत ....अमूमन तो ऊपर वाला स्टेटस के हिसाब से ही देता है. उसकी खुदाई पर शक ना हो इसलिए कभी -कभी बगैर स्टेटस के भी एक-आध लोगों को मिल जाती है. तो अख़बारों में, किताबों में तहरीरे बनती हैं .उनकी मेहनत की मिसाले दे जाती हैं और मेहनत बुरका पहन खामोश.....रश्क करती है किस्मत से.



वो आगे सोचती है ......मुहं दिखाई तो दोनों की होती है मेहनत की भी और किस्मत की भी ..........लेकिन यहाँ भी बाजी पलटने के लिए सैकड़ो फैक्टर सीना चौड़ा किये खड़े रहते हैं......जबरदस्त जंग होती है .....मेहनत और किस्मत दोनों की तकदीरे दांव पर ........लेकिन रिजल्ट स्क्रिप्टेड ही होगा .....उन लोगों के लिए जों कहते हैं ...खुदा की मर्जी है के बिना पत्ता भी नहीं हिलता .


आगे सोचती है दिल्ली के बम-धमाके भी स्क्रिप्टेड थे क्या ? इन्विसिबल खुदा ही लिखता है ये सब ......फिर क्यों पूजते हैं सारे ? लड़ते है उसके लिए ....वो खुदा किसे पूजता होगा ? उहूं ...क्या यही सब सोचने के लिए बचा है मेरी लाइफ में ....सोचने में क्या प्रोडक्टविटी? और ऐसी सोच का फायदा ही क्या जों रेवन्यू ना जेनरेट करती हो. .....उसे बदलाव के साथ समझौता तो बहुत पहले कर लेना चाहिए था....किसने देखे हैं उसूलों के फल......फलसफेबाज़ होती जा रही है वो....इन विचारो के दौरान पहली बार मुस्कुराई हैं ......

मेरी लाइफ की स्क्रिप्ट भी उसी के हाथो में है, सुन ऊपर वाले स्किल्स गज़ब की है, और कमपिटेनसी तो तू भी समझता है ....जब डिरेक्टर ही बकवास होगा तो मूवी क्या ख़ाक चलेगी ......
यहाँ भी मजबूरी है ....मर्जी से डिरेक्टर भी नहीं बदल सकती .......साला ! रिस्क और जिंदगी कोम्प्लिमंट्री चीज़े हैं

विचारो की ओवेर्लेपिंग जारी है ........सोच जिंदगी नुमा उलझती जा रही है ........आगे सोच का ना कोई सिरा है औ ना पीछे का कोई छोर ......बागी विचार .....फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व की लाइन को चीरते हुए तेज़ी से बढ़ते हैं .......आगे जों चल रहा है उसे खुद नहीं पता


स्क्रिप्टेड रिअलिटी शोज़ में तो ज़्यादातर असक्षम लोग ही विनर होते हैं. शुरुवात यहाँ भी दस्तूर की, रस्मो की, रिवाजों की.......ऐसे कितने होती हैं जिनके मेहनत के चेहरे, किस्मत के चेहरे नहीं होते ....नकाब होते हैं .....बेनकाब लोगों के पास भी होती है फिर कर्म मेहनत वेर्सेस किस्मत में अपना भाग्य आजमाती हुई.. ..... वो राईट था उसके लिए ....नहीं ..... कुछ बोला क्यों नहीं .......जिसने बोला वो एक्सेप्ट करने लायक नहीं था ......अब विचारो की ये बेतरतीब उलझनों को नींद की आगोश में ही खोना था .......वरना माइग्रेन को कोई नहीं रोक सकता . इसी उधेड़बुन में इन्ही ख्यालों में आँख लग गई


...तो कल क्या कुछ नया होगा? कुछ पोजिटिव? नींद गहरी हो चली है ...सोने देते हैं, शश श ...जाग जायेगी....सोते हुए कितनी पोजिटिव लगती है ना ....वो चादर उढ़ा जीरो लाइट जला कमरे से चली जाती है.......ज़रूर माँ ही होगी उसकी

माँ खुद से कहती है ......बचपन वाली मासूमियत आज भी है और सवाल करने की आदत भी .......लेकिन बदल रही है ...बड़ी जों हो गई है ...कहते हुए कमरे से निकल जाती है


कई बार विचारो की सीवन खुल जाती है
आजाद रूह बहुत कुछ बक जाती है

आज़ादी को जंजीर पहनाई सिस्टम ने

Tuesday, May 11, 2010

मोहब्बत-ए-गुलज़ार/ त्रिवेणी-ए-आबाद

कहाँ से शुरू करूँ और कहाँ से ख़त्म....कौन सा किस्सा सुना दूं औ किसे छोड़ दूं ...इसी उधेड़बुन में ये पोस्ट लिखी जायेगी।

आज मोहब्बत की बात करते हैं। ना जाने कैसे लोग कहते हैं क़ि एक बार होती हैं हमें तो बहुत बार हुई ....उम्मीद हैं बदस्तूर ये सिलसिला जारी रहेगा .....और जारी भी रहना चाहिए क्योकि दिल तो बच्चा है जी और इश्क कमीना।



अपनी तो किस्मत ही ख़राब हैं जी जब फोर्थ स्टैण्डर्ड में थी तो पी० टी० टीचर पे दिल आ गया ....और अब गुलज़ार साब पे ....कभी बराबर वाले के साथ मैच ही नहीं मिला :-) पिछले सारे क़िस्से फिर कभी और आज तो लेटेस्ट मोहब्बत की कहानी ही बयां करते हैं। आजकल हमारे प्रिन्स चार्मिंग हैं गुलज़ार साब......अरे पूछिए मत क़ि उनकी किस अदा से प्यार नहीं है हमको .....उनकी कलम पर हम क्या हमारी आने वाली पीढियां कुर्बान .......कसम से... फैन, ए.सी, कूलर तो बहुत पुरानी बातें हो चुकी ......हम तो कुछ और ही हैं जी :-) वो उनका व्हाइट कलर का छोटा सा ऊंचा कुर्ता- अलीगढ पैजामा , अधकचरी दाढ़ी, सर पर सुफैद हल्के करीने से कंघी किये बाल, चौड़ा माथा और वो आखो पे चश्मा जिसपे हम कुर्बान........बस यही खत्म नहीं होता उनका अंदाज़ ....आगे देखिये .....चलते- चलते उनका हाथो को पीछे की तरफ बाँध लेना, बात करते-करते आस्तीनों को मोड़ना और तो और औटोग्राफ देते हुए स्पेक्टकल की आर्म्स को दांतों से दबा लेना .......बस! इस अदा पर किसी और को क़त्ल होने की ज़रुरत नहीं ....हम हैं ना।

DSC00715.JPG

वो क्या ना बीच में हमारे बीच कुछ डिस्प्यूट्स हो गए थे अरे इब्नबतूता को लेकर .......थोड़े नाराज़ हो गए थे हम .....सर्वेश्वर जी के फेवर में खड़े हो गए थे.....हमने भी साफ़ -साफ़ बोल दिया के आपके दीवाने हैं पागल नहीं.....लेकिन अब सुलह हो गई हैं हमारे बीच ......सच्ची मोहब्बत में डिस्टेंस कैसा :-) सो फ़िक्र नॉट .......ऐवरीथिंग इस गोइंग ऑन नोर्मल।

सुने हैं के पिक्चर के अलावा साहित्य में भी कोई बड़ा कमाल किये हैं ये...त्रिवेणी बनावे हैं कोई ....और गंगा, जमुना, सरस्वती के साथ जोड़ दिए हैं। सुने तो ये भी हैं कि देखने में कोई खास चीज़ ना लगे........ पर इनका घात, आघात, प्रहार उतना ही लचीला और वैसा ही कठोर जैसे कबीर के दोहे हो हम सोचे के त्रिवेणी पे हम भी आजमाइश की जाए ......शायद कोई कारनामा अंजाम हो जाये। वो हमारी आदत हैं ना क्रेडिट देने की तो चलो दे ही देते हैं और उनको नहीं देंगे तो किसको देंगे :-) तो पहली त्रिवेणी उन्ही के नाम .....

किसी ने दो सौ सफहों में लिखी अपनी आत्मकथा
जब वो साठ बरस का था

गुलज़ार ने महज़ तीन लाइन में उम्र गुजार दी।



प्रश्न होगा कैसे ?

जवाब देखिये : -
" जिंदगी क्या है जानने के लिए,
जिंदा रहना बहुत जरूरी है

आज तक कोई रहा तो नही --गुलज़ार

अब हमारी कारस्तानी, हमारा अंदाज़ पेशे-खिदमत हैं , गुल्ज़ेरिया हुआ है हमको .....ईलाज बताएं


.
रात के चाँद ने सूरज की रोशनी सोख ली,
अब तमाम बरस चांदनी सूरज से रोशन होगी,

अच्छा कारोबार हुआ है आज
( सदी के सबसे लम्बे सूर्य- ग्रहण के लिए लिखी थी ये )

.
साँझ के सांवले लाल-पीले आसमां पर ,
बादलों के घूंघट से चाँद झांकता है जब

क्या गलत है जो मुझे नींद नहीं आती

.
जिंदगी के कैनवास पर कुछ रंग भर लेने दो ,
सुकूँ से कुछ पल अपनी मर्ज़ी से जी लेने दो ,

सुना है इस बजट में रंग महेंगे हुए हैं


.
आकाश में तारों को किसने सिया है इस तरह,
एक कारीगर ने उन्हें करघे से बुनना चाहा,

इस हंसी ख्वाब को कल कौडी में बेचेगा वो।

.
गुलाब की इज्जत आज बरखा ने तार- तार कर दी,
बेशर्म कोचिया गुलाब के हालात पर मुस्कुरा रहा है

अब तो बाग़ से इंसानियत की बू आती है


.
बुजुर्ग घडीसाज़ ने पुरानी घडी दुरस्त कर दी,
वक़्त के साथ चलने लगी है अब,

कांसे के बर्तनों का फैशन फिर से आएगा

.
खुले बालों को तौलिये से मत झिटका करो,
पूरा तौलिया गीला हो जाता है ,

एक चिंगारी से गोदाम में आग लगी थी इस दीवाली

.
ये उन दिनों की बात है जब किताबे पढ़ा करते थे ,
जुबा से लज्ज़त ले सफ़हे पलटना याद है ,

बोरोसिल की केतली में वो नुक्कड़ की चाय का स्वाद नहीं।


.
कल हिचकी आई तो सोचा उसने याद किया होगा,
कुछ पल उसको याद कर मुस्कुरा लेंगे, तड़प लेंगे,

इस मुए फ़ोन ने नजदीकियों के नाम पर ठग लिया हमको।


१०

एक वक्त था जब पायल की झंकार से सुबह होती थी,
और बुजुर्गवार की खांसी से रात ,

अब एरोबिक्स के म्यूजिक से नींद टूट जाया करती है


कुछ अजब- गज़ब किया हमने.....मोहब्बत से शुरू हो ...त्रिवेणी पर ख़त्म......रब ही राखे मैनू.....साडा कुछ नी हो संक्या.......अब तो ये लगे हैं हमें के ये मोहब्बत त्रिवेणी टाइप चीज़ ही होती हैं। ये त्रिवेणी बहुत पहले लिखे थे .....ये नहीं जानते थे कि ऐसे पेश करेंगे .......लाइफ में कुछ भी प्लान्ड नहीं ........अब देखिये ना शुरू किये मोहब्बत से लटक गए गुलज़ार साब पर और गिरे त्रिवेणी पर।

आजकल अक्षर नज़र नहीं मिलाते
कन्नी काट कर निकल जाते हैं

जैसे एक- दूजे को देख रास्ता बदलते हम-तुम

इस बार काफी कुछ बोला हमने....मिलते रहेंगे...आप भी आते-जाते रहिएगा .....ये नेट का जंजाल तो आबाद रहेगा


" प्रिया "





Tuesday, May 4, 2010

वक़्त गुज़र ही जाता हैं





क्या लिखूं ? सुनते आये हैं कि सच को जीना जितना मुश्किल है उस से भी मुश्किल उसको ईमानदारी से बयां करना ..... लेकिन सच बोलने से हमें गुरेज़ नहीं ....हरिश्चंद्र टाइप इंसान तो नहीं लेकिन हाँ! यूँ ही रोज़मर्रा की छोटी - छोटी बातों पर दिन में पंद्रह बार बेवजह झूठ बोलना अभी तक तो शामिल नहीं किया जीवन में। क्यों अपने -आप अपनी आत्मा को लहू-लुहान करूँ।? वो भी क्या सोचेगी विधाता ने कौन सा चोंगा दे दिया पहनने को .....मरा आराम कम चुभन ज्यादा देता हैं। वैसे भी जिंदगी हर लम्हा जीना सिखाती हैं...कमबख्त! इमोशनल इंसान को जब तक सोफेस्तिकेटड पोलिश्ड में ना बदले हालातों का अत्याचार जारी रहता हैं.....बीते दिनों जीवन के ऐसे ही रूप का साक्षात्कार हुआ। साला (हाल ही में इस शब्द को अपनी डिकशनरी में जोड़ा) अनहेल्थी, डिपरेसिव, कोम्प्लेक्स लाइफ जीनी पड़ी।

पिछले महीने कष्टकारी रहे। बड़े लोग कहते हैं कि जों अच्छे होते हैं ईश्वर उन्ही की परीक्षा लेते हैं । इससे एक बात तो तय है कि हम अच्छे हैं इनफैक्ट पूरा परिवार ...तभी तो ईश्वर टाइम टू टाइम टेस्ट लेता रहता हैं। लेकिन इस बार इक्सामिनेशन वाकई मुश्किल था....अच्छा ! इन हालातों में सब कुछ बुरा होते हुए भी एक अच्छी सी बात ये हो जाती है कि सीखने को बहुत मिलता हैं .....सो मिला ना हमको भी ...लेकिन सच तो ये भी है कि रात और दिन बहुत लम्बे लगे। शायद उन दिनों चाँद और सूरज ने साजिश कर ओवर-टाइम कर चौबीस घंटो से ज्यादा काम किया होगा .....जब अपनों को तकलीफ होती हैं और आप असहाय होते हैं मदद में......तो ऐसी बेचारगी पर क्या बयानबाजी .... खुदा, खुदी और खुदाई बस यही हैं जों सही मायने में काम करते हैं।


लेकिन हमने भी ज़माने के संग चलने कि जैसे ज़िद कर रखी हो ....इस बार खुशियाँ ओढने में कामयाब रही शायद। ......और दुःख के दौरान खूबसूरत हो गई :-) अपनी वार्डरोब से सारे इस्टाइलइश कपड़ो को रोज़ एक -एक कर अजमाया....इएरिंग पहनना अवोइड करती हूँ अक्सर लेकिन ज्वेल्लरी बॉक्स से सारी निकाल ली और ड्रेस के साथ मैच लगा-लगा कर खूब पहनी। हालाँकि चेहरे ने साथ देने से इनकार किया......लेकिन हमने भी जैसे खूबसूरत लगने कि ज़िद कर रखी हो ...कोम्प्लिमेंट्स भी मिले....इस मुई तकलीफ ने खूबसूरत बना दिया। कुछ ख़ास लोगों को दर्द का इल्म था मेरी ...सो मोरल सपोर्ट भी मिला। लेकिन जिंदगी का जिंदगी के लिए संघर्ष वाकई मुश्किल खेल हैं। किस्मत भी हौसले को परखती है शायद........अब जिंदगी लौट आई हैं मेरे घर। उम्मीद हैं खुशिया भी दस्तक देंगी जल्दी ही। बस थोड़ी देख -रेख क़ी ज़रुरत हैं। कल मौसम खूबसूरत लगा हमें.....कविताए भी रास आने लगी .....जीवन भी अपनी पटरी पर दौड़ने लगा हैं....लेकिन एक बात तो तय हैं वक़्त कैसा भी क्यों ना हो गुज़र ही जाता हैं।


( लिखने के लिए कुछ नहीं था सो लिख दिया... जों जिया वो ही कह दिया ...लेकिन हमदर्दी वाली टिपण्णी मत चिपकाइए.... वो क्या हैं ना ....इलेक्ट्रोनिक हमदर्दी आर्टीफिसिअल फील देता हैं। )

चलिए चलते हैं अब। ...फिर कभी हाज़िर होंगे किस और तजुर्बे के साथ ....यकीनन! दुआ दीजिये अगली पोस्ट में तजुर्बा खूबसूरत हो ताकि उमंग और उल्लास के साथ शब्दों को गूंध कोई बेहतरीन स्वादिष्ट व्यंजन परोसूं।

सस्नेह

प्रिया

Saturday, January 23, 2010

मुस्कुराने की शर्त पक्की है



परिवर्तन स्रष्टि का नियम है और इन्हें टाला भी नहीं जा सकता बिना बताये जाते हैं बादलों की तरह। किलकारियां कब ठहाके में बदलती है .....और ठहाके कब चिंता में पता ही नहीं चलता....बस यूँ ही उम्र गुज़र जाती है ....और एक दिन जिंदगी ख़त्म ......इंसान के जाने के बाद लोग चर्चा करते है ..... अच्छे इंसान थे ...बखूबी निभाई जिम्मेदारियां ...सारी जिंदगी दूसरों के बारे में सोचा .....संघर्ष करते रहे। लेकिन खैर परिवार के लिए बहुत कुछ कर गए है कोई परेशानी नहीं होगी। ऐसे डायलॉग सुन गुलज़ार साब की त्रिवेणी याद जाती है।

" सब पे आती है सबकी बारी से,
मौत मुंसिफ है कमोबेश नहीं आती
जिंदगी सब पे क्यों नहीं आती "

जिंदगी सब पर इसलिए नहीं आती क्योंकि हम लाना ही नहीं चाहते .....जिंदगी की जिम्मेदारियां और ज़रूरते तो हम सब के साथ है .....हम उनमें मसरूफ होकर खुद को भूल जाते है ....कभी कुछ ऐसा ट्राई करिए ----


गुब्बारा फूला कर उसे फटाक से फोड़ दीजिये। बब्बलगम खा कर छत पर जाकर बड़ा सा फुलाइये .....पडोसी मुस्कुराये तो मुस्कुराने दीजिये.....इसी बहाने वो भी हँसे। कटिया लगा कर मछली पकडिये......अपने ही घर में भाई-बहन या पति/पत्नी से छुपा कर मिठाई खा लीजिये और पूछने पर साफ़ मुकर जाइए ।बाद में मुस्करा कर हामी भरिये .....छुट्टी के दिन परिवार के साथ मिल कर पतंग उड़ाइए। एक चरखी पकडे, छुर्रैया दे,तीसरा पेंच लड़ाए,आनंद जायेगा। जिंदगी दौड़ती हुई आएगी ......तो फिर वक़्त बीतने के साथ - साथ हम उम्र गुज़ारे क्यों ? जिए क्यों नहीं। सच्ची! कई बार बेवकूफियां करने में बड़ा मज़ा आता है ....ये जो हमारे अंदर नन्हा- मुन्ना स्वीट सा बच्चा है ये जब बाहर आता है तो सिर्फ हमारे चेहरे पर ही मुस्कान नहीं देता बल्कि आस-पास वालों को भी खिलखिलाहट गिफ्ट करता है। हाल ही का एक वाकया शेयर करते है आप सब से। कड़ाके की सर्दियों में सुबह - सुबह उठाना ....फिर टू-व्हीलर ड्राइव् कर ऑफिस जाना ....जान निकल जाती है कसम से। एक सुबह कोहरे वाली कंपकपाती सर्दी रेडी हुए ऑफिस के लिए। बाउंडरी में आते ही अपने सीधे हाथ की दो उँगलियों को होटों पे लगा (सिगरेट पीते हुए अंदाज़ में ) धूएं जैसे भाप छोड़ी हवा में .....ये तापमान पता करने का कारगर नुस्खा है मेरे हिसाब से हिम्मत कर गाड़ी स्टार्ट की चल पड़े ऑफिस की ओर। उस धुआंधार कोहरे में अचानक से बादलों के बीच से झांकते सूरज चाचू नज़र गए लेकिन ऐसा लगा की कासटयूम बदल कर आये है.....मतलब चंदा मामा टाइप मटेरिअल लगे। अब जब चंदा जैसे लगे तो कहाँ दूर रह पाते हम उनसे...झट से बना लिया हमसफ़र ......हर लव स्टोरी में विलेन होता है ....बादलों ने विलेन का रोल किया और अपना कैरेक्टर पूरी ईमानदारी से प्ले किया। खैर पहुचे ऑफिस....गाडी पार्क की हमनवा को टा- टा किया और वर्कप्लेस की तरफ रुख ....बहुत खुश थे हम। जैकेट उतार कुर्सी पर लटका दी। ब्लोवेर के पास जा हाथ गरम किये....इसी बीच किसी ने पूछ लिया ......बड़ी खुश नज़र रही है आप ....बस फिर क्या था ......सुना दी हमसफ़र की कहानी...पूरी गर्मजोशी के साथ... कि किस तरह सूरज का चाँद के साथ जॉब रोटेशन हुआ ....लगे हाथ अपना पोएटिक टेलेंट भी दिखा दिया। तुकबंदी मार के कुछ ऐसे- ---
" सूरज और चाँद के मध्य एक अनोखा करार हुआ,
दिन में चाँद का और रात में सूरज का दीदार हुआ॥

हमारी कहानी सुनाने कि कला का प्रभाव ये हुआ कि हर बन्दा चाँद रुपी सूरज का दीदार करने के लिए बाहर जाकर सूरज के दर्शन के लिए लालायित हुआ......और मुस्कुराते हुए कमरे मे लौटा ......वो लोग जो दुखी आत्मा के नाम से फेमस है ऑफिस में .......मुस्कुराते इसलिए नहीं की कहीं टैक्स देना पड़ (नोन एस डेडीकेटएड इमप्लोयी) जाए.......मिलीयन डॉलर इस्माइल के साथ वापसी हुई उनकी .......सच्ची उस दिन सभी को सूरज चाँद जैसा लगा .......अब कुछ लोगो को ये बेवकूफी लगे तो लगे ..पर हमारे लिए तो जिंदगी है क्योंकि उन पलों को भरपूर जिया हमने और अपने साथियों को भी वो लम्हे महसूस करवाए .......घर से ऑफिस तक के नन्हे से सफ़र ने उस कड़ाके और गलन वाली सर्दी ने भरपूर जिंदगी दी हमें और हमने मुस्कराहट अपने साथियों को।


(अगर इस लेख को पढ़ कर आप मुस्कुराये.....बस यही तो मुआवजा है मेरा :- )