Monday, November 15, 2010

घर /मकाँ/ जुमले/लड़कियां

लोग क्या कुछ नहीं करते...एक आशियाँ बनाने के लिए .....बन भी गया तो सजाने के लिए......कितने अरमान होते हैं एक घर के साथ....और उस घर से जुड़े हर पल के साथ .....उन दीवारों ने क्या कुछ नहीं देखा होता....साक्षी होती हैं तब भी, जब घर में कोई नहीं होता ....हर दीवार की एक कहानी होती है,सीनरी, कैलेण्डर, बाल हैंगिग और रंगों की परते, रंग बदलती इंसानी फितरतों सी तजुर्बेकार.....फिर क्यों कहते हैं दीवारें निर्जीव होती हैं? हर्षो-उल्लास, प्रेम, गम, दुःख,पीड़ा, अवसाद, ना जाने कितनी भाव-भंगिमाएँ, सैकड़ो मुद्राए सभी में कभी हमसफ़र तो कभी हमनवा....लेकिन उन पर भी उसका हक नहीं होता .......पराई अमानत जों होती हैं .....फिर एक दिन इन दीवारों से भी नाता टूट जाता है.....दूसरा पराया घर, अपने-पराये से लोग और जान - पहचान बढाती दीवारें ......इन दीवारों से मकाँ बनता है और स्त्रियों से घर .....ख़ास तौर से बेटियाँ .....हाँ !जिन्हें घर की रौनक कहा जाता है ....टिपिकल भारतीय परिवेश की बात करूँ तो ओवर- प्रोटेक्ट किया जाता है



हिन्दुस्तान की शायद ही कोई ऐसी लड़की हो जिसने "पराई अमानत" जैसा जुमला ना सुना हो ......यहाँ मेरे हिसाब से रहो जब अपने घर जाना तो जैसा चाहना वैसा करना ..... जिसे घर मान एक उम्र बिताती है, घर को सवारती हैं सजाती है...उसे मालूम होता है घर के हर हिस्से के जज़्बात ....लुका-छिपी के खेल में कौन सा कोना उसका फेवरेट था, मिकी-माउस और शक्तिमान के स्टीकर उसकी वार्डरोब में आराम से रहते हैं...और वो आइना जों तब ही साथ था जब वो शमीज़ पहन पूरे घर में दौड़ती और फिर आईने के सामने आ तरह-तरह की शक्ले बनाती .....इसी आईने ने उसे साडी में भी देखा है .....गमले में लगे वो सारे पौधे वाकिफ हैं उसकी छुअन से है ...जब टहलते-टहलते तुलसी के पास जाती...तो तुलसी आपने आप झुक जाती कि चख ले मेरी पत्तियां.....कई बार तो हवा के बहाने से गिरा देती अपनी शाखे ...माँ सी तुलसी.....जानती है कि उसे स्वाद पसंद है ....सो खामोश से कर देती बलिदान......फिर धीरे- धीरे लड़कियां खुद ही समझ जाती ....कि एक दिन उन्हें जाना होगा...दूसरे लोगों के बीच सबकुछ छोड़ कर.....उन्हें भी इंतज़ार होता अपने हिस्से कि ज़मीं और अपने आसमां का .....और फिर वो दिन आता जब उसे अपना घर संसार मिल जाता ......उसके हिस्से का आकाश .......उसका अपना घर जहाँ से उसे किसी पराये घर नहीं जाना .....लेकिन मरे जुमले यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ते ......ये रस्म तुम्हारे घर होती होगी, हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता .......या फिर कुछ यूँ ..... जब अपने घर जाना (मायके) तभी फलाना काम कर लेना.


अब लड़की कन्फ्युस आखिर उसका असल घर कौन है .....क्योंकि माता -पिता के यहाँ तो वो पराई-अमानत थी .....अब जब उसे अमानत कि सुपुर्दगी उसके मालिक को कर दी गई है फिर भी ये घर वाले जुमले ...हमें लगता है की लड़कियां एक प्रोपर्टी के जैसे होती हैं जिन्हें ट्रान्सफर किया जाता ....उनकी ओनरशिप बदलती है बस .....लेकिन फिर सवाल जगा एक .......अगर प्रोपटी हैं तो ट्रांस्फ्री को कीमत क्यों चुकानी पड़ती हैं? ये पेचीदा मसले है ....रस्मो, रिवाजो, परम्परों और प्रथाओं से जुड़े हुए .....इन्ही को कहते हैं संस्कृति शायद .....सवाल तो अब भी वही टिका है....हिला ही नहीं....हमसे पहले की पीढ़ी ने भी पूछे होंगे शायद, अगली पीढ़ी के पास जवाब हो शायद....इसी उम्मीद के साथ ......फिर कभी मिलते हैं