लोग क्या कुछ नहीं करते...एक आशियाँ बनाने के लिए .....बन भी गया तो सजाने के लिए......कितने अरमान होते हैं एक घर के साथ....और उस घर से जुड़े हर पल के साथ .....उन दीवारों ने क्या कुछ नहीं देखा होता....साक्षी होती हैं तब भी, जब घर में कोई नहीं होता ....हर दीवार की एक कहानी होती है,सीनरी, कैलेण्डर, बाल हैंगिग और रंगों की परते, रंग बदलती इंसानी फितरतों सी तजुर्बेकार.....फिर क्यों कहते हैं दीवारें निर्जीव होती हैं? हर्षो-उल्लास, प्रेम, गम, दुःख,पीड़ा, अवसाद, ना जाने कितनी भाव-भंगिमाएँ, सैकड़ो मुद्राए सभी में कभी हमसफ़र तो कभी हमनवा....लेकिन उन पर भी उसका हक नहीं होता .......पराई अमानत जों होती हैं .....फिर एक दिन इन दीवारों से भी नाता टूट जाता है.....दूसरा पराया घर, अपने-पराये से लोग और जान - पहचान बढाती दीवारें ......इन दीवारों से मकाँ बनता है और स्त्रियों से घर .....ख़ास तौर से बेटियाँ .....हाँ !जिन्हें घर की रौनक कहा जाता है ....टिपिकल भारतीय परिवेश की बात करूँ तो ओवर- प्रोटेक्ट किया जाता है
हिन्दुस्तान की शायद ही कोई ऐसी लड़की हो जिसने "पराई अमानत" जैसा जुमला ना सुना हो ......यहाँ मेरे हिसाब से रहो जब अपने घर जाना तो जैसा चाहना वैसा करना ..... जिसे घर मान एक उम्र बिताती है, घर को सवारती हैं सजाती है...उसे मालूम होता है घर के हर हिस्से के जज़्बात ....लुका-छिपी के खेल में कौन सा कोना उसका फेवरेट था, मिकी-माउस और शक्तिमान के स्टीकर उसकी वार्डरोब में आराम से रहते हैं...और वो आइना जों तब ही साथ था जब वो शमीज़ पहन पूरे घर में दौड़ती और फिर आईने के सामने आ तरह-तरह की शक्ले बनाती .....इसी आईने ने उसे साडी में भी देखा है .....गमले में लगे वो सारे पौधे वाकिफ हैं उसकी छुअन से है ...जब टहलते-टहलते तुलसी के पास जाती...तो तुलसी आपने आप झुक जाती कि चख ले मेरी पत्तियां.....कई बार तो हवा के बहाने से गिरा देती अपनी शाखे ...माँ सी तुलसी.....जानती है कि उसे स्वाद पसंद है ....सो खामोश से कर देती बलिदान......फिर धीरे- धीरे लड़कियां खुद ही समझ जाती ....कि एक दिन उन्हें जाना होगा...दूसरे लोगों के बीच सबकुछ छोड़ कर.....उन्हें भी इंतज़ार होता अपने हिस्से कि ज़मीं और अपने आसमां का .....और फिर वो दिन आता जब उसे अपना घर संसार मिल जाता ......उसके हिस्से का आकाश .......उसका अपना घर जहाँ से उसे किसी पराये घर नहीं जाना .....लेकिन मरे जुमले यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ते ......ये रस्म तुम्हारे घर होती होगी, हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता .......या फिर कुछ यूँ ..... जब अपने घर जाना (मायके) तभी फलाना काम कर लेना.
अब लड़की कन्फ्युस आखिर उसका असल घर कौन है .....क्योंकि माता -पिता के यहाँ तो वो पराई-अमानत थी .....अब जब उसे अमानत कि सुपुर्दगी उसके मालिक को कर दी गई है फिर भी ये घर वाले जुमले ...हमें लगता है की लड़कियां एक प्रोपर्टी के जैसे होती हैं जिन्हें ट्रान्सफर किया जाता ....उनकी ओनरशिप बदलती है बस .....लेकिन फिर सवाल जगा एक .......अगर प्रोपटी हैं तो ट्रांस्फ्री को कीमत क्यों चुकानी पड़ती हैं? ये पेचीदा मसले है ....रस्मो, रिवाजो, परम्परों और प्रथाओं से जुड़े हुए .....इन्ही को कहते हैं संस्कृति शायद .....सवाल तो अब भी वही टिका है....हिला ही नहीं....हमसे पहले की पीढ़ी ने भी पूछे होंगे शायद, अगली पीढ़ी के पास जवाब हो शायद....इसी उम्मीद के साथ ......फिर कभी मिलते हैं
Priya ji apka kahna jayaj hai liken vidhi ka vidhan hi kuch aisa hai, Ladkiya to Samaj ka ek aham hissa hain, jo ki ek parivar se dusare parivar ke beech main riste banati hain, sochiye ki agar aisa naa ho to rista nam ki cheej hi khatm ho jayegi.
ReplyDeleteMata
Baehn,
Beti, Chahi, Bua, etc
Ye sab ladkiyon ki to den hai
pata hai ye topic aksar mere liye ladne or bahas karne ka sabse accha mudda hota hai ghar me ya kabhi dosto me :P:D
ReplyDeletekhair bahut accha likha tumne as usual ..saval khud hi javaab hai ..or javab hi ssabs bada savaal hai ..bahut confusion hai bhai ..but thanks to God k ham is savaaal/ javaab ka hissa hain :)
priya ji,
ReplyDeletebade dino ke baad darshan diye aapne!
kaise hain aap? aasha karta hoon achey honge!
ek ajeeb see kashish rehti hai aapke lekhan mein, bahut acha laga padh kar!
अजीब शै है औरत....कल हॉस्पिटल किसी रेफरेंस से गुजरा ...तो एक मां सिजेरियन करवाने के लिए स्ट्रेचर पर जा रही थी....जाते जाते पति को हिदायते दे रही थी....ओर ५ साल के बच्चे को पुचकार .......सब कुछ पिछला छोड़कर ...इतने बन्धनों में ...इतनी रवायतो में रहकर भी ....इतना कुछ बांटना .....शायद औरत की फितरत है......
ReplyDeleteएक प्रश्न का उत्तर तो है :
ReplyDeleteलड़कियों का अपना घर कौन सा होता है?
पिया का घर..
very nice post and blog have a nice day
ReplyDeleteलड़कियों की शादी हो,वो अपनी ससुराल जाये ,खुश रहें वो और उनका फलता फूलता परिवार सुखी रहे.यही तो दुनिया,समाज और प्रकृति सभी चाहते हैं.इसमें सवाल उठाने जैसी कोई बात नहीं दिखती
ReplyDeleteप्रिया जी, संस्कृति का उद्बभव एक ही दिन या एक ही समय में नही हुआ, पुराने समय से हजारों वर्षों के संस्कारों को नयी पौध तक पहुंचाया गया, यहीं मूल सस्कारों को अपने अपने हिसाब से तोड मरोड कर दर्शाया गया, यही टूटा फूटा रूप है जो आज दिखाई देता है, वरना एक स्त्री का अपने संस्कार को निभाना हजारों जन्मों के सुख सा था। ऐसा ही एक पुरुष के साथ है। समाज और संस्कार मनुष्य नें इसलिये बनाए ताकि वो अपना जीवन सरलता से बिताए। ये वो प्राचीन इतिहास है जिसके लिये हमें अपने देश पर गर्व है। पुराने जमाने मैं भी स्त्रियों का मह्त्व था, सीता-राम, राधे-श्याम, उमा-महेश्वर स्त्री का नाम पहले था, "यत्र नार्य पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देव्ता:" जैसी बात थी। स्त्री का पीहर या ससुराल उसके सामाजिक जीवन का एक हिस्सा है। यदि समाज के कुछ नियम हैं तो वह सभी को मानने हैं, वो स्त्री हो या पुरूष्। " अच्छे लेखन के लिये धन्यवाद्। आपकी word power strong है। आप अच्छी लेखिका हैं। dprabhakarsblog.blogspot.com
ReplyDeleterajjyotish2009.blogspot.com
पर आपका स्वागत है। पुन: धन्यवाद
बहुत अच्छी बात लिखी आपने शायद हर किसी लड़की के मन में इस तरह के ख्यालात उठाते होंगे! मनोदशा का सही चित्रण है आपकी रचना .......
ReplyDeleteइस बार मेरे ब्लॉग में SMS की दुनिया
priya
ReplyDeletebaaten jab deewaron se shuru ki to nahi laga ki parayi amanat tak jaa pahunchegi
badi udhenbun men daal diya... aakhi rme sawaal chhodkar.. han highlight kiye hue hisse padhte hue apne aap man par highlight ho gaye... :)
Atiutam - ***
ReplyDeleteAbout me - ki panktiya bhut achi hai - saral va ispasht.
बहुत अच्छा लेख १ वास्तव में नारी दो दो घरों को संवरती हैं ! नारी को उसके हिस्से का आस्मान मिलना ही चाहिए !
ReplyDeleteये समस्या तो हर लड़की/औरत को होती है. उसका असली घर है कहाँ...बहुत सारे सपने ताक पे रखने होते हैं कि अपने घर जाओगी तो करना...अपने घर पर आने में पता चलता है कि जो वहां नहीं किया ये कैसे सोचती हो यहाँ कर सकोगी. तुम पर अब दो घरों की जिम्मेदारी है, दोनों की इज्ज़त निभाओ. अपनी आज़ादी कभी नहीं मिलती. इस लुका छिपी में थोड़े से वो दिन फ्री होते हैं जो किसी एक कुंवारी लड़की, वर्किंग वोमन होस्टल में, घर से दूर बिताती है...वो वक़्त सब उसका खुद का होता है. वक़्त, नियम, सवाल, बंधन सब अपना.
ReplyDeleteसमाधान सदैव नारी ही देती है. सुन्दर आलेख.
ReplyDeletemain shayad bahut lucky rahi...mujhe parayi amanat jaise shabd kabhi nahi sunne pade... lekin ladki ko paraya samajhna hi bahut beemar mansikta hai. uska apna nirnay...apni mukt soch honi chahiye.
ReplyDeleteमनोदशा का सही चित्रण है आपकी रचना| धन्यवाद|
ReplyDeleteमन में उठने वाले भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति ......सूक्ष्मता से अभिव्यंजित ...आपका आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेखन
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट
मन के भावों को बहुत ही सुन्दरता से आपने शब्द दिए हैं
अच्छा लगा पढना
आभार
अत्यंत प्रभावी रचना
ReplyDeleteWah,
ReplyDeletesach bhi yahi hai....k akhir ladki ka apna ghar kaun sa hota hai.
sach me mai kabhi is mudde par sochta hun to bahut door tal jabab nahi dikhta .
shayad agali pidhi ke pas ho.
जब तक तय करने का हक दूसरों के जिम्मे रहेगा, लड़की इसी तरह दुविधा में रहेगी कि उसका "अपना घर" कौन है...
ReplyDeleteप्रिया जी, मैं अरविंद शेष हूं। जनसत्ता में नौकरी करता हूं। आपका यह ब्लॉग पोस्ट मुझे अच्छा लगा और इसे जनसत्ता के समांतर स्तंभ में छापा है। लेकिन आपके ब्लॉग पर प्रोफाइल में आपका कोई ईमेल पता नहीं मिला कि आपको इसकी पीडीएफ प्रति भेजी जा सके।
आप ईमेल से कोई सूचना इन पतों पर भेज सकती हैं,
arvindshesh@gmail.com या
edit.jansatta@expressindia.com।
शुक्रिया...
अरविंद शेष