
याद तो होगा ना साँझ तुम्हे ......बात उन दिनों कि है जब हम बारहवी में थे, बोर्ड की परीक्षा देने के बाद वो गर्मियों की छुट्टियाँ हर रोज तुम्हारे इंतज़ार में ही तो कटती थी...वो तपती दोपहरी...माँ के कहने से टाल-मटोल कर छत से कपडे लेने जानबूझकर नंगे पैर जाती ताकि दे सकूं धूप को हज़ार उलाहने....लेकिन वो ढीट, बेशर्म धूप उलाहनो, तानो... किसी से भी ना बाज आती...करती रहती मनमानी ....हमसे उसकी जलन का नतीजा पांवो की तपन......पूरी दोपहर कैरम, लूडो, शतरंज, भैया से लड़ाई, आचार और मिठाई के चुराई में बीतती. उफ्फ्फ कितना खाते थे हम उन दिनों .
फिर घडी चार बजाती....आँगन तक आई धूप बरामदे में जाती और तेरे आने से खुश हो हम कितना काम कर जाते...वो सारे पौधों को पानी पिलाना....कुछ तो इतने प्यासे होते के गट-गट कर बुल्ला भी छोड़ते....और हम फूँक मार बुल्ले को तोड़ते...दीदी चाय बनाती थी....और मेरे फेवरेट चावल की कचरी भूनती .....इधर पाइप लगा जब हम मिट्टी को सीचते तो सौंधी खूसबू मेरे रोम-रोम में समां जाती....कितनी बार तो लालच में मिट्टी भी चखी है हमने ......फिर दीदी की आवाज़ "कचरी खालो आके, वरना बाद में झगडा करोगी "
बाहर आ जब देखती तो तुम पूरी तरह सज-संवर उतर चुकी होते मेरी कालोनी ....और वो सूरज...लाल,पीली, काली सफ़ेद धुआं -नुमा निशानी छोड़ अपना बोरिया-बिस्तर उठा दूर देस जाने की तैयारी करता.
याद है तुम्हे मेरा उन दिनों बैडमिन्टन का चस्का! कल्पना, ज्योति, राजू, विपुल ....और भी ना जाने कितने सारे...कुछ के तो नाम भी भूल चुके हैं हम ...यूँ तुम्हारी मौजूदगी में खेल और दोस्तों का साथ कितना भाता था हमें ....कितने दिन हुए...तुम आती तो रोज हो बस मुलाकात नहीं हो पाती....वो सीन नहीं दोहरा पाते हम....खेलने के बाद भी कहाँ छोड़ पाती थी तुमको....चढ़ जाती अटारी और सीढ़ी वाले पिलर के पास कभी बैठ के, तो कभी खड़े होके करती मुआयना चिड़ियों के लौटते हुए झुंडो का .....लहराती पतंगों का और वो रंग, बिरंगे बादल.. जों फुसला कर सूरज को एक सुनहरी रेखा में कर देते ट्रांसफोर्म....इस मंज़र में तुम्हारा साथ कितना सुकूँ देता था हमें .....
फिर चाँद होने लगता बेपर्दा....बादलों के घूंघट से ...धीरे-धीरे तारे झांकते और शुरू हो जाता पूरे आकाश पे कब्जे का सिलसिला....और आ जाता रुखसती का वक़्त ....मुस्कुरा के तुम्हे विदाई दे भी नहीं पाती कि माँ कि आवाज़ " छत पर ही टँगी रहना, एक जगह पैर नहीं टिकते तुम्हारे....माँ की आवाज़ सुनते ही तेजी से सीढ़ियों की तरफ भागती ..तुम्हे टा-टा कहते हुए....नीचे वही ट्यूबलाइट की रौशनी में चूरा होती सांझ.....गोधूली की बेला की दास्ताँ क्यों नहीं हो सकती?
यूँ तो साँझ अब भी आती है ....लेकिन मेरी वाली नहीं आती ....आज तुम्हे याद तो बहुत किया...लेकिन गुजरे वक़्त को वापस पाना नहीं चाहती ....यादों में रहो इतना काफी है....
मिलने की चाह तो बलवती है आज भी....लेकिन तब, जब रूमानी बरसातें मेरे आस-पास मंडराएं और कोई फूलों से महका दें मेरी मन की हर क्यारी.....तब आना तुम वक़्त को रोक कर, सोंधी हवा के साथ, मदमस्त गीत गाते हुए...किवाड़ बंद कर देंगे हम ...जाने ना देंगे तुम्हे ...इतना एकांत भी अच्छा नहीं होता, आखिरकार कोई तो हो साक्षी मेरी उमंग, तरंग, ख्वाब, ख्याल और ख्वाइशो का
जहाँ-तहां पड़े रहते हैं यादो के इन्वेस्टमेंट
सपनो के शेयर, ख्यालों के म्युचुअल फंड
जिन्दगी स्टॉक एक्सचेंज नहीं है तो क्या है?
सपनो के शेयर, ख्यालों के म्युचुअल फंड
जिन्दगी स्टॉक एक्सचेंज नहीं है तो क्या है?
प्रियाजी,
ReplyDeleteक्या अन्दाज़ है, और क्या अल्फ़ाज़ हैं !
वाह,
मुझे लग रहा है कि मेरी वालें शामें ही आपके
आसपास भी मँडरा रही थीं !
शायद मेरी शामों का रंग कुछ अलहदा था,
लेकिन जैसे कॉफ़ी के रंग और स्वाद के अलग
अलग होने पर भी उसका अपना फ़्लेवर होता है,
जो चाय या दूसरे ड्रिंक्स से अलग होता है, कुछ
वैसा ही लग रहा है आपके बयान से !
सादर,
वक़्त झरने सा बह जायेगा.....
ReplyDeleteइतना एकांत भी अच्छा नहीं होता ......
बहुत सुंदर ,वाक्यात भी अलफ़ाज़ भी.....
पहली पोस्ट पढ़ी है....अच्छा लगा
kya baat...kya baat...kya baat...
ReplyDeletewaaah!! saannjh ka hamari jindagi me alag hi rang hota hai ..or vakt k saath badalta jata ..or hamari jindagi se to esa lagta hai chaa hi gya ...ya to din hota ya raat hoti hai ...sanjh ka pata hi nahi chalta :(
ReplyDeleteअरे ! ये शामें तो मेरी थीं ......कब से खोज रहा था इन्हें ......पर मुझे क्या पता कि प्रिया जी इन्हें चुरा ले जायेंगी......चलो माफ़ किया आज वापस तो कर दीं आपने ...और वह भी intact ......
ReplyDeleteआपकी लेखन शैली कमाल की है.
lo ji.....saanjh aa gayi :)
ReplyDeletekya baat hai dost, kya khoob likha hai....itna intezaar aur phir itna khoobsurat manzar....amazing, bohot accha laga padhkar :)
aur haan, mera naam saanjh hi hai :)
वाह! बहुत सुन्दर...धन्यवाद|
ReplyDeleteaapke lekhan me zazbaat ka put koot koot kar bhara hai...ye gadyatmak bhav mujhe kavita ke jharno sa prateet hote hain...anwarat bahte huye mantramugdh karte huye...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लेख लिखा है-आपने।
ReplyDeleteप्रशंसनीय.........लेखन के लिए बधाई।
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देश को नेता लोग करते हैं प्यार बहुत?
अथवा वे वाक़ई, हैं रंगे सियार बहुत?
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होली मुबारक़ हो। सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
होली की बहुत बहुत शुभकामनाये आपका ब्लॉग बहुत ही सुन्दर है उतने ही सुन्दर आपके विचार है जो सोचने पर मजबूर करदेते है
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग पे भी पधारिये में निचे अपने लिंक दे रहा हु
धन्यवाद्
http://vangaydinesh.blogspot.com/
http://dineshpareek19.blogspot.com/
http://pareekofindia.blogspot.com/
saral va ispasht bhav - Utam - ***
ReplyDeleteपढ़ा-लिखा सब फिक्स्ड डिपाजिट में, ब्याज से ब्लॉगिंग.
ReplyDeleteनहीं बस यूं ही नहीं जायेंगे...
ReplyDeleteइन दो पंक्ितयों के बीच क्या लिखा है, अगर आप पढ़ सकें तो पढ़ लें।
financialisation of life !!!
ReplyDeletekuch cheeje yaado me hi rahe to achha...interesting post..mitti ki khushboo yyha tk aayi :)
ReplyDeleteGreat to see your blog, now I'm following ur blog. so im ur follower no. 100.....
ReplyDeleteRegards, Gajender
wakayi shaam to har roz hoti hai par aisi nahi jaisi aapne , hamne aur sab ne undino dekhi thi
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिखा है अपने इस मैं कमी निकलना मेरे बस की बात नहीं है क्यों की मैं तो खुद १ नया ब्लोगर हु
ReplyDeleteबहुत दिनों से मैं ब्लॉग पे आया हु और फिर इसका मुझे खामियाजा भी भुगतना पड़ा क्यों की जब मैं खुद किसी के ब्लॉग पे नहीं गया तो दुसरे बंधू क्यों आयें गे इस के लिए मैं आप सब भाइयो और बहनों से माफ़ी मागता हु मेरे नहीं आने की भी १ वजह ये रही थी की ३१ मार्च के कुछ काम में में व्यस्त होने की वजह से नहीं आ पाया
पर मैने अपने ब्लॉग पे बहुत सायरी पोस्ट पे पहले ही कर दी थी लेकिन आप भाइयो का सहयोग नहीं मिल पाने की वजह से मैं थोरा दुखी जरुर हुआ हु
धन्यवाद्
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/
so poetic....
ReplyDeletewaah.bahut hi khoobsurat shand.aapne to jese meri sham ko meri dhoop ko mere sooraj ko mujhese milwa diya
ReplyDeleteलालच में हमने भी मिट्टी चखी है.. :)
ReplyDeleteप्रत्येक जीवन में ढली शामों का रंग एक जैसा होता है..
अच्छा है.....कहीं कहीं बोझिल सा लगता है....दुहराव की जरूरत है...प्रयास सराहनीय है.
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